शाम का सफर आशीष रोशन लाल शर्मा कुछ टूटे पत्ते शाखों के जोड़े हमने कुछ लम्हों को इकट्ठा किया , फिर बनी कुछ मुकम्मल सी यादें , और हमने फिर आगे ज़िंदगी का सफर तय किया , रुकना भी यूँ ही पल दो पल का हुआ कहने भर को , मत रुक , यूँ ही वजह बेवजह , इशारा हर बार भागते वक़्त ने क़दमों को किया , कहाँ सैलाबों को झेलने वाली एक कश्ती थी मेरी , और एक हलके से झोंके ने तबीयत से उसे तार तार किया , यूँ ही समझ के सिकंदर खुद को , यूँ ही समझ के सिकंदर खुद को , निकले थे हम , मुआइना ऐ ज़िंदगी करने को , ज़िंदगी ने फिर हमें पूछा मुस्कुरा के , कभी , तूने हाथों में अपने सच का आइना लिया यूँ ही बस कुछ बातें हुई आज अक्स ऐ आईने से , हर बात , सच , झूठ , प्यार , नफरत , गिला , शिकवा , जो भी किया , हर बार उसने मुझे अपना कहा , खेर , शामों को घूमना रोक देंगे हम अब धीरे धीरे , हमने जब भी अपनी दास्ताँ बताई उनको , हस हस के उन्होंने इसे एक सपना कहा , सपना कहा !
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